Sunday 4 September 2011

कहां हैं संसदीय गरिमा की बात करने वाले?

मजाक बनी राजस्थान विधानसभा, विधायक सस्‍पेंड, वोटर बेबस!
राजस्थान विधानसभा में 29 अगस्त 2011 को एक भाजपा विधायक ने चप्पल फेंकी। उस विधायक को एक साल के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया। यह सजा विधायक को नहीं, बल्कि उसके मतदाताओं को मिली है। विधायक जी तो साल भर सदन जाने की मेहनत से बचे। वेतन व सारी सुविधाएं मिलती रहेंगी।

नियम है कि किसी भी विधानसभा व संसदीय क्षेत्र को छह महीने से ज्यादा समय प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। किसी विधायक या सांसद की मृत्यु या इस्तीफे पर छह माह के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है। लेकिन चप्पल वाले विधायक भवानी सिंह राजावत का चुनाव क्षेत्र साल भर प्रतिनिधित्वविहीन रहेगा। उस क्षेत्र के मतदाता अपने सवालों को अपने प्रतिनिधि के माध्यम से विधानसभा में नहीं ला सकेंगे। स्पष्टतः यह सजा विधायकों को नहीं बल्कि उसके क्षेत्र लदपुरा (कोटा) के मतदाताओं को भुगतनी होगी। इसलिए उस क्षेत्र के किसी मतदाता या राजस्थान के किसी भी नागरिक को तत्काल कोर्ट जाकर अपील करनी चाहिए कि विधायक की बदतमीजी की सजा मतदाताताओं को क्यों? अगर विधायक ने गलत किया, तो उसकी सदस्यता खारिज हो, या उसके वेतन-भत्तों व अन्य सुविधाओं पर रोक लगे या उसे अगला चुनाव लड़ने से रोका जाए या कुछ और। लेकिन वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय परंपरा में नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार से भला कैसे वंचित किया जा सकता है? क्या यह नागरिकों के विशेषाधिकार का हनन नहीं है?

भाजपा विधायकों ने कांग्रेस विधायक रघु शर्मा पर सरकारी तालाब की 18 बीघा जमीन हड़पने संबंधी गंभीर आरोप लगाये थे। इस दौरान कांग्रेस विधायक रघु शर्मा ने भाजपा की महिला विधायकों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए कहा – यह विधानसभा है, कोई मोडलिंग का रैंप नहीं।

इस हंगामे के बीच पांच विधेयकों को बगैर कोई चर्चा या विमर्श कराये पारित कर दिया गया। इनमें राजस्थान राइट टू सर्विस विधेयक जैसा जनहित का महत्वपूर्ण कानून भी शामिल है। अन्य विधेयक हैं – क्रिया नियंत्रण संशोधन विधेयक, नगरपालिका संशोधन विधेयक, नगरीय पथविक्रेता जीविका का संरक्षण, पथ विक्रय का विनियमन विधेयक।

चूंकि अन्ना के आंदोलन ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप और संसदीय प्रणाली पर कई जरूरी सवाल खड़े कर दिये हैं, लिहाजा उस आलोक में हमें राजस्थान विधानसभा की इस घटना से जुड़े इन पहलुओं पर गौर करना चाहिए -

→ संसद और विधानसभा की गरिमा का क्‍या होगा, जिसकी दुहाई देते हमारे माननीय जनप्रतिनधि नहीं थकते, लेकिन जिसे खुद तार-तार करते हैं?

→ भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या, जिसके हल की उम्मीद हम इन जनप्रतिनिधियों से करते हैं जबकि खुद जनप्रतिनिधि ही सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में भला इनसे किसी बेहतर कानून व कारगर कदम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

→ विधायिका का प्रमुख काम है कानून बनाना। लेकिन महत्वपूर्ण कानून बिना चर्चा के पारित हो गये। इन कानूनों से ही देश-राज्य की व्यवस्था और नागरिकों की जिंदगी चलनी है। क्या इन माननीयों को हक है कि किसी सुविचारित प्रक्रिया से गुजरे बगैर कानून बना दे? अगर हां, तो विधानसभा की जरूरत क्या?

→ किसी भी क्षेत्र को छह माह से अधिक समय तक प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। तब उस विधायक को साल भर विधानसभा में आने से रोककर मतदाताओं को सजा देने का क्या औचित्य है?

→ किरण बेदी और ओमपुरी के बयानों पर हायतौबा मचाने वाले खुद जनप्रतिनिधियों की भाषा पर क्या कहेंगे? क्या कांग्रेस विधेयक को यह अधिकार है कि वह सदन में मौजूद महिलाओं पर ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणियां करे?

प्रसंगवश, रामलीला मैदान में ओम पुरी और किरण बेदी के वक्तव्य के लिए उन्हें विशेषाधिकार का नोटिस दिया गया है। लेकिन उन्हें ऐसा बोलने किसने मजबूर किया? सरकार और संसद ने उस दिन जो भावशून्यता दिखायी थी, उसे टीवी पर किरण बेदी की हताशा देखकर समझा जाना चाहिए था। अन्ना और जनलोकपाल पर बात करने के बदले संसद में जो घटिया तमाशा चल रहा था, उसे देखकर हर गैरतमंद को नफरत हो रही थी। किस महान संसदीय परंपरा की बात करते हैं ये लोग? राजस्थान विधानसभा में चप्पलें चलने पर क्यों चुप हैं महान संसदीय परंपरा और विशेषाधिकार का बखान करने वाले? क्या सदन में चप्पल चलाना और बिना कोई बहस किये कानून बना देना इनका विशेषाधिकार है? किरण बेदी और ओमपुरी इसी सच का आइना दिखा रहे थे।

और हां, ओमपुरी या किसी ने सभी सांसदों को बेवकूफ नहीं कहा। ओमपुरी उन लोगों की बात कर रहे थे जो जनलोकपाल मामले में ऊलजलूल बोल रहे थे। अगर लोकपाल विधेयक को लेकर 1968 से अब तक का इनसे हिसाब मांगा जाए, तो इन्हें तकलीफ होगी। 42 साल का गुस्सा है। थोड़ा फूट ही गया तो जायज है। सांसदों को स्वयं यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग उनका सम्मान करें। विशेषाधिकार के डंडे से कितने दिन हासिल कर पाएंगे सम्मान?

ओमपुरी कह रहे हैं कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, उस पर कोई अफसोस नहीं। सिर्फ दो शब्द थोड़े बेहतर तरीके से बोले जा सकते थे। मतलब बात सही थी, उसे बोलने में थोड़ी सावधानी बरती जा सकती थी। यानी जो कहा, ठीक कहा। ओमपुरी ने बढ़िया बताया है कि मैंने तो सिर्फ इन दो शब्दों का प्रयोग किया, आप अगर उस वक्त वहां मौजूद आम लोगों से पूछते तो आपको यकीन नहीं होगा कि वे किन शब्दों को प्रयोग करते।

ओमपुरी और किरण बेदी ने जो कहा, वह सरकार व संसद की संवेदनहीनता की नतीजा था। इन्हें विशेषाधिकार नोटिस भेजने वालों ने खुद संसद में बहस के दौरान भद्दे तरीकों, शब्दों का उपयोग किया। क्या नागरिकों का कोई विशेषाधिकार है, जिसके हनन का नोटिस दें उन सांसदों को?

अन्ना को धन्यवाद जिनके कारण पहली बार हम एक कानून बनाने पर बहस कर सके। वरना ज्यादातर विधेयक बिना चर्चा के पास हो जाते हैं। जाहिर है कि ऐसी संसद और विधानसभा को संविधान की मूल भावना के अनुरूप बनाने के लिए अभी और बहुत कुछ करना बाकी है। अन्नांदोलन ने इसकी शुरूआत भर की है।

No comments:

Post a Comment