सूचना कानून के प्रावधानों के खिलाफ है बिहार की आरटीआइ फीस नियमावली, इससे तो सुशासन की हत्या हुई
विष्णु राजगढि़या
सूचना कानून को सुशासन का सबसे कारगर हथियार माना गया है. नीतीश कुमार अगर सचमुच सुशासन लाना चाहते तो सूचना कानून को पूरी तरह लागू करते. लेकिन सूचना मांगने वालों को प्रताडि़त करने की सबसे ज्यादा शिकायतें बिहार से ही आती हैं.
बिहार सरकार ने आरटीआइ फीस नियमावली में संशोधन के बहाने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर अवैध कदम उठाया है. 19 नवंबर 2009 को बिहार सूचना का अधिकार (संशोधन) नियमावली 2009 की अधिसूचना जारी की गयी. इसमें सूचना कानून के मूल प्रावधानों में कई बड़े फेरबदल किये गये, जो सूचना कानून 2005 के प्रावधानों और भावना के पूरी तरह खिलाफ हैं। इसका नमूना देखें-
ऽ एक आवेदन पर एक ही विषय की सूचना दी जायेगी.
ऽ सूचना का आवेदन अधिकतम 150 शब्दों का होगा
ऽ आवेदक को अपना पता लिखा टिकट लगा लिफाफा देना होगा.
ऽ बीपीएल को दस पेज तक की ही सूचना निशुल्क मिलेगी
ऽ केवल वही सूचना मिलेगी जो विभाग के पास पहले से मौजूद है.
ऽ अगर कोई सूचना दूसरे विभाग से संबंधित है, तो जनसूचना अधिकारी कह सकता है कि सूचना मेरे पास नहीं और मुझे नहीं मालूम कि यह सूचना किस विभाग के पास है.
ऐसे सारे संशोधन पूर्णतया अवैध हैं. सूूचना कानून के तहत फीस एवं अपील संबंधी नियमावली बनाने का अधिकार केंद्र एवं राज्य सरकारों को दिया गया है. लेकिन वह नियमावली संसद द्वारा पारित मूल कानून के अनुरूप ही होनी चाहिए, उसके खिलाफ नहीं.
मूल कानून में सूचना की परिभाषा काफी व्यापक है. यह मात्र किसी एक सूचना या किसी एक बिंदु तक सीमित नहीं है. कोई भी सरकार सूचना की परिभाषा को संकुचित नहीं कर सकती. लिहाजा, एक आवेदन को एक ही विषय पर केंद्रित करना अवैध है. नौकरशाह इस संशोधन की मनमानी व्याख्या करके नागरिकों को अपमानित और प्रताडि़त करेंगे. सूचना के आवेदन की शब्द सीमा 150 निर्धारित करने की भी शक्ति राज्य सरकार को नहीं है. दिलचस्प यह कि बिहार सरकार ने सूचना आवेदन का जो प्रपत्र जारी कर रखा है, वह स्वयं 200 शब्दों का है. आवेदक से अपना पता लिखा टिकट लगा लिफाफा मांगना भी जटिलता बढ़ाने की कोशिश है. संसद ने मूल कानून बेहद आसान बनाया है ताकि आम आदमी इसका लाभ उठा सके.
सूचना कानून की धारा 7(5) के अनुसार गरीबी की रेखा यानी बीपीएल श्रेणी के नागरिकों से कोई फीस नहीं ली जायेगी। वह सूचना अधिकतम कितने पृष्ठों तक होगी, कानून ने इसकी कोई सीमा तय नहीं की है। लिहाजा, बिहार सरकार द्वारा बीपीएल को दस पेज तक ही निःशुल्क देने का नियम भी अवैध है.
सूचना कानून की 6(3) के अनुसार किसी जनसूचना अधिकारी से ऐसी सूचना मांगी गयी हो जो किसी अन्य विभाग से संबंधित हो तो पांच दिन के भीतर उसके पास भेजना होगा. यह दायित्व उस जनसूचना अधिकारी का है जिसके पास आवेदन जमा हुआ. लेकिन नीतीश कुमार ने जनसूचना अधिकारी को ऐसे आवेदन यह कहकर लौटाने का अधिकार दे दिया है कि मुझे नहीं मालूम कि सूचना किसके पास है. ऐसे में भला कौन जनसूचना अधिकारी कानून की धारा 6(3) की परवाह करेगा. इस धारा को तो बिहार सरकार ने प्रकारांतर से खत्म ही कर डाला है.
कानून की धारा 27 में राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति दी गयी है। इसमें फीस संबंधी नियम सिर्फ सूचना के लिए आवेदन करने और सूचना के प्रति पृष्ठों के संबंध में लेने की बात कही गयी है. सूचना नहीं मिलने या अधूरी मिलने पर अगर आवेदक को अपील करनी हो, तो इसके लिए कोई फीस नहीं ली जा सकती. प्रथम अपील के संबंध में राज्य सरकार को सिर्फ प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने की शक्ति है. इसके लिए वह कोई फीस निर्धारित नहीं कर सकती.
लेकिन बिहार सरकार ने प्रथम अपील के लिए भी फीस निर्धारित करके सूचना कानून का मखौल उड़ाया है. जरा सोचिये, किसी नागरिक को अपील क्यों करनी पड़ रही है? जनसूचना अधिकारी ने उसे वांछित सूचना नहीं दी, इसलिए नागरिक को अपील करनी पड़ रही है. अगर उसे सूचना मिल गयी होती तो अपील नहीं करनी पड़ती. इस तरह, जनसूचना अधिकारी द्वारा कानून का पालन नहीं किये जाने के कारण नागरिक को प्रथम अपील करनी पड़ी. ऐसे में उस नागरिक को संरक्षण और सहयोग देने के बजाय उससे रुपये वसूलना निश्चय ही उसे हताश करने की साजिश है.
इस संशोधन के खिलाफ आॅनलाइन पीटीशन पर हस्ताक्षर करें-
http://www.PetitionOnline.com/rtibihar/petition.html
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Bihar RTI (Amendment) Rules 2009
No. 8 RTI – 15-02/2006- /12522 Notified on 19-11-2009
1. The amendment has been notified under section 27 of RTI Act 2005. The Section 27 of RTI Act has empowered the appropriate government to make rules for fees under section 4 and 7 without prejudice to the generality of the foregoing powers. But the amendments has been done in various other sections of RTI Act 2005 which are prejudice to the generalities of the foregoing powers as described below
a. Amendment to request for information regarding only one subject
b. Amendment to limit the request up to 150 words
c. The applicant has to submit self addressed envelop
The term ‘Information’ has been defined in the Section 2 (f) and the State government has no power to amend section 2 or to narrow the definition of ‘Information’ by making provision to sought only one subject related information.
The subjects of aforesaid amendments comes under Section 6. But the Section 27 has not empowered to make rule for Section 6.
d. Amendment to provide only 10 pages without cost to BPL.
The Section 7(5) has made clear and specific provision to provide the information to the BPL people totally free of cost. Any government has no power to snatch or limit any right or benefits provided by the Parliament to its citizen.
e. Amendment to provide only such information which is already available or held by the Public Authority
f. Amendment to empower the PIO to reply an applicant that he do not know the information is held by which authority
g. Amendment to empower the PIO to suggest the applicant to apply to various PIOs in case the information is related to various Public Authorities.
The subjects of aforesaid amendments comes under Section 6. But the Section 27 has not empowered to make rule for Section 6. The section 6(3) makes provisions to transfer the application to the concerned PIO within five days and it has not left any scope for any escape.
In reference to the aforesaid details, The Government of Bihar may asked that the aforesaid amendments in other Sections of RTI Acts has been done under which authorisation or empowerment and how do these are without prejudice to the generality of the foregoing powers of the RTI Act.
Important link for ONLINE PETITION
http://www.petitiononline.com/rtibihar/petition.html
NEWS
Patna, Nov 4 (IANS) Bihar Chief Minister Nitish Kumar came in for criticism from opposition parties Wednesday for proposing a change in the fee structure of the Right to Information (RTI) Act, wherein a petitioner would have to pay Rs.10 per query instead of Rs.10 for any number of queries in his petition.
Nitish Kumar has proposed amendment to the RTI Act in Bihar and has proposed increasing the fees for seeking information through the RTI to Rs.10 per query.
Till now a petitioner could seek as many queries in his petition by paying Rs.10 only.
The opposition parties Rashtriya Janata Dal (RJD), Lok Janshakti Party (LJP), Congress and Left parties have criticised Nitish Kumar for proposing an change in the RTI rule in the state.
Opposition leaders alleged that Nitish Kumar was trying to dilute the RTI Act in Bihar to shield rampant corruption.
‘It is a draconian amendment to discourage the common man from seeking information under the RTI Act,’ RJD leader Ram KIrpal Yadav said.
Another RJD leader Shakeel Ahmad Khan said that proposed amendment will defeat the very purpose of the RTI Act which is to bring transparency and accountability in the functioning of government offices.
‘A petitioner seeking 10 queries from a government body on a single application will have to pay Rs.100 in place of Rs.10,’ Khan said.
Bihar state Congress chief Anil Kumar Sharma said the ‘move is anti-people’.
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Tuesday, October 20, 2009
बिहार में सूचनाधिकार: अभी दिल्ली दूर है....
बिहार के सुशासन बाबू नीतीश कुमार ने 29 जनवरी 2007 को बिहार में सूचना अधिकार के नाम पर एक क्रांति का सूत्रपात किया था. सुशासन बाबू ने फोन के जरिए सूचना देने का क्रांतिकारी प्रयोग किया था. इस लिहाज से प्राइसवाटर हाउस कूपर्स से लेकर सोनिया गांधी तक सभी ने सुशासन बाबू की इस पहल की जमकर तारीफ की थी और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे बिहार को सूचना अधिकार का रोल मॉडल घोषित कर दिया था. लेकिन क्या सूचना अधिकार का यह रोल मॉडल काम कर रहा है?
देश में बढ़ते भ्रष्टाचार व अपारदर्शिता से निपटने हेतु लागू किए गए ‘सूचना के अधिकार’ को नाफिज़ हुए चार वर्ष मुकम्मल हो चुके हैं। और ये सच है कि जब भी ‘सूचना के अधिकार' का ज़िक्र होगा तो बिहार राज्य का नाम ज़रुर आएगा, क्योंकि बिहार इस मामले में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि नीतिश जी के लफ़्ज़ों में पूरे विश्व का ‘मॉडल स्टेट' है। हमारे देश में बिहार ही एक ऐसा राज्य जहां फोन के माध्यम से ‘सूचना के अधिकार' का आवेदन किसी भी विभाग में डाल सकते हैं। इसके लिए यहां 29 जनवरी 2007 से ‘जानकारी' नामक एक कॉल सेंटर स्थापित है। इस कॉल सेंटर की मीडिया व सिविल सोसाईटी की जानिब से खूब प्रशंसा की गई। यहां तक कि इसके लिए बिहार सरकार को कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। यही नहीं, मशहूर कंसल्टेंसी एजेंसी प्राइसवाटर हाउसकूपर्स के साथ-साथ सोनिया गांधी भी इसकी मुरीद हैं। कार्मिक मंत्रालय तो इससे इतना प्रभावित है कि इस तरह का कॉल सेंटर पूरे देश भर में शुरु करने का मन बना रही है। पर अफसोस पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही है।
इस ‘मॉडल स्टेट' में इस अधिकार की जो दयनीय हालत है, शायद उसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता। बिहार के दूसरे विभागों से सूचना दिलवाने वाली ये ‘कॉल सेंटर' खुद बीमार है। शुरु के एक-डेढ़ साल तो हमें ‘ये नंबर सेवा में नहीं है' या फिर ‘डायल किया गया कृपया जांच लें' की सदा सुनाई देती रही और अब रिंग होता रहे और कोई फोन रिसीव न करे या फिर फोन उठाकर आपका फोन काट दे तो इसमें ज़्यादा हैरान होने की ज़रुरत नहीं है, और अगर आपका आवेदन दर्ज कर लिया जाए तो इस स्थिती में आप सूचना मिलने की ज़्यादा उम्मीद मत रखिएगा। हो सकता है कि फोन से दस रुपये बतौर फीस कटने के बाद भी कुछ विभाग आपसे फीस की मांग करें, या सूचना पूछने के जुर्म में जेल की हवा खानी पड़े, या फिर हो सकता है कि एक साल के बाद आपको सूचना मिले वो भी आधी।अधूरी। और अगर आपने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ठान ली है तो फिर आप लोगों के लिए स्वयं एक हास्यापद सूचना हैं।
हालत तो यह है कि सूचना उपलब्ध करवाने वाला ‘कॉल सेंटर' और ‘राज्य सूचना आयोग' खुद अपनी सूचना देना मुनासिब नहीं समझते। ऐसे में बाकी विभागों का क्या रवैया होगाए इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। हालांकि नीतिश सरकार ने इस अधिकार के प्रचार व प्रसार में काफी पैसे बहाये हैं। सूचना के अधिकार के तहत काफी मेहनत व मुशक्कत के बाद 18 नवंबर 2008 को मिली सूचना के अनुसार इस अधिकार के व्यापक प्रचार।प्रसार हेतु सूचना एवं जन सम्पर्क विभागए बिहार द्वारा मेघदूत पोस्टकार्ड योजना के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1।25 लाख पोस्टकार्ड का मुद्रण किया गयाए जिस पर कुल लागत 2.50 लाख रुपये है। पोस्टर मुद्रण पर 22,500. (बाइस हज़ार पांच सौ) रुपये तथा फ्लैक्स संस्थापन के कार्य पर 52,763 (बावन हज़ार सात सौ तिरसठ) रुपये खर्च किया गया। इसके अतिरिक्त प्रखंडों के आधार पर इसके प्रचारार्थ होर्डिंगए फ्लैक्स एंव पम्पलेट निर्माण हेतु कुल 21,48,000(इक्कीस लाख अड़तालीस हज़ार) रुपये खर्च किया गया है। केन्द्रीय प्रायोजित योजना के तहत भी राज्य को कार्यशाला एंव सेमिनार के माध्यम से प्रचार.प्रसार हेतु 50,000 (पचास हज़ार) रुपये ज़िलाधिकारी पटना को मिला।
सूचना के अधिकार के तहत मिली एक अन्य सूचना के अनुसार बिहार स्टेट इलेक्ट्रॉनिक डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के ज़रिए आउटसोर्सिंग व्यवस्था से चलने वाली छह सीटर कॉल सेंटर को कार्मिक व प्रशासनिक सुधार विभाग, बिहार से दिनांक 25 सितम्बर 2007 को 33,26,000/- (तैतीस लाख छब्बीस हज़ार) रुपये प्राप्त हुए जबकि इसने खर्च किया 34,40,586/- (चौतीस लाख चालीस हज़ार पांच सौ छियासी) रुपये।
वहीं बिहार राज्य सूचना आयोग में वर्ष 2008-09 तक 2,75,43,072/- (दो करोड़ पचहत्तर लाख तिरालीस हज़ार बहत्तर) रुपये की राशि खर्च की गई। पर अफसोस! इतने खर्च के बावजूद ये राज्य सूचना आयोग दो ही आयुक्तों के सहारे चल रहा है, जबकि एक मुख्य सूचना आयुक्त सहित 10 आयुक्त यहां होने चाहिए। दिलचस्प बात तो यह है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही खाली है, क्योंकि अक्टूबर 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त न्यायमूर्ति शशांक कुमार सिंह सेवानिवृत हो गए और राज्य सरकार ने पटना हाईकोर्ट के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश जे।एन.भट्ट को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया लेकिन श्री भट्ट ने आज तक मुख्य सूचना आयुक्त का पदभार ग्रहण नहीं किया। यही कारण है कि जून 2009 तक के रिपोर्ट के मुताबिक 9106 वादों की सुनवाई आयोग के समक्ष प्रक्रियाधीन है, क्योंकि सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार अक्टूबर 2006 से जून 2009 तक आयोग में कुल 20572 वाद दर्ज गए, जिनमें से 11466 वादों का निष्पादन कर दिया गया है। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि हर आवेदक के द्वितीय अपील के बाद जुर्माना लगाने की बात करने वाली ये आयोग अब तक 23 जन सूचना अधिकारियों पर ही जुर्माना लगा सकी है, जिससे आयोग को मात्र 3,16,750/- (तीन लाख सोलह हज़ार सात सौ पचास) रुपये की आमदनी हुई है। अब आप स्वयं सोचिए कि ऐसे में कोई सूचना अधिकारी किसी को सूचना क्यों दे…? और जब मॉडल स्टेट की हालत ये है तो बाकी राज्यों में इस अधिकार के हश्र का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं।
लालू के लालटेन युग के बाद बिहार की जनता में यह उम्मीद जगी थी कि शायद अब भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी, लेकिन सुशासन के दौर में भी भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। खैर, बिहार सुधर सकता है, गरीबी का पहाड़ समतल हो सकता है, पर शर्त है कि पुराना ढब बदला जाए, पर यहां के सरकारी अधिकारी ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे।
अफ़रोज़ आलम साहिल
Posted by “लीक से हट कर”
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सूचना के अधिकार को बेअसर करने की बिहार सरकार की साजिश
सूचना का अधिकार,२००५ भारत के इतिहास में ऐसा पहला कानून है जिसके तहत प्रशासन को निर्धारित समयसीमा के भीतर काम पूरा करने के लिए जवाबदेह बनाने की कोशिश की गयी है.इसके द्वारा अफसरों-कर्मचारियों को एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना देने को बाध्य किया गया है.अब तक बहुत-से अफसर-कर्मचारियों पर जुरमाना भी लगाया गया है. शुरू में तो सबकुछ ठीक रहा लेकिन बहुत जल्दी जब राजनेताओं के प्यारे नजदीकी अफसरों को भी इसने अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया तब वे ढूँढने लगे जनता के हाथ लगे इस बहुमूल्य हथियार को भोथरा बनाने का उपाय. केंद्र सरकार इस दिशा में पहले ही दो बार कोशिश कर चुकी है, लेकिन असफल रही है भारी विरोध के कारण. अब बारी है बिहार सरकार की जो इस मुद्दे पर अपनी सफलता का ढोल पीटती फ़िर रही है.बिहार सरकार अधिनियम में इस तरह से संशोधन की योजना बना रही है जिससे कि एक आवेदन पर अब एक ही सूचना मांगी जा सके. इसका परिणाम यह होगा कि इस अधिनियम की जान ही निकल जायेगी और यह अधिकार बस नाम का ही रह जायेगा. दूसरे शब्दों में अगर हम कहें कि क्या केंद्र और क्या राज्य सरकार दोनों इस महत्वपूर्ण अधिकार को शांतिपूर्ण मौत देने की फिराक में है. किसी एक मुद्दे पर सम्पूर्ता में सूचना चाहिए तो फ़िर भेजो १०-१५ आवेदन. किसके पास इतना पैसा होगा कि वह १००-१५० रूपये खर्च करेगा? बिहार सरकार ने पहले से ही अपील पर ५० रूपये का शुल्क लगा रखा है और बिडम्बना तो यह है कि अधिकतर बिहारी जनता को पता तक नहीं है कि अपील के आवेदन के साथ ५० रूपये का पोस्टल आर्डर भी भेजना है. परिणाम यह होता है कि लोग आवेदन को बिना शुल्क के भेज देते हैं और अपील ऐसे ही जाया हो जाती है.ऐसा खुद मेरे साथ भी हो चूका है.दूसरी ओर खुद बिहार सरकार भी नहीं चाहती कि जनता को इस बात का पता चले तभी तो आरटीआई सम्बन्धी बिहार सरकार की किसी भी होर्डिंग या विज्ञापन में आज तक इस तथ्य का जिक्र तक नहीं किया गया. कम-से-कम मैंने तो ऐसा ही पाया है.दूसरी ओर बिहार सरकार बार-बार दावे कर रही है कि इतने आवेदनों का निष्पादन किया गया या इतने लोगों ने सूचना प्राप्त की. अब सरकारी दावे का स्रोत क्या है ये तो वही जाने मुझे तो अपने एक दर्जन आरटीआई आवेदनों में से किसी में भी अपेक्षित सूचना प्राप्त नहीं हुई. दो मामलों में तो सूचना के एवज में मुझसे क्रमशः ३४४४६ और ७२८० रूपये की मांग भी की गई.आरटीआई को लेकर राज्य सरकार कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक लम्बे अरसे से बिहार के मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली था और पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही इस पद को भरा गया. तब तक लंबित आवेदनों का अम्बार लग गया था और सरकार कान में तेल डाल कर पड़ी थी.खुद नवनियुक्त मुख्य सूचना आयुक्त के अनुसार इन १०००० मामलों के निबटने में ही कम-से-कम छह महीने लगनेवाले हैं.
http://brajkiduniya.blogspot.com/2009/11/blog-post_11.html
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सूचना के अधिकार पर अत्याचार?
मणिकांत ठाकुर
बीबीसी संवाददाता, पटना
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005. बिहार में इस क़ानून के तहत सूचना मांगने वाले लोगों पर भ्रष्ट अधिकारियों के अत्याचार का डंडा बरसने लगा है. यहाँ पंचायत स्तर से लेकर सरकारी विभागों के स्तर तक इस मामले में प्रताड़ना के कई मामले सामने आ चुके हैं. सरकारी योजनाओं में बरती गई अनियमितताओं को दबाने-छिपाने वाला अधिकारी या कर्मचारी वर्ग यहाँ लोगों के सूचना-अधिकार के ख़िलाफ़ हमलावर रुख़ अपना चुका है.
बिहार में तीन साल पहले इस अधिनियम को लागू करते समय दिखने वाली सरकारी तत्परता की देश भर में सराहना हुई थी. आज स्थिति उलट गई लगती है. कारण है कि अब इसी राज्य में नागरिकों के सूचना-अधिकार का हनन सबसे ज़्यादा हो रहा है.
दूसरी ओर शिकायतों की भरमार से घबराए मुख्यमंत्री ने कुछ फौरी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं. इसी सिलसिले में उन्होंने एक हेल्पलाइन नंबर- 2219435 जारी करते हुए ख़ुद टेलिफ़ोन पर पहली शिकायत (संख्या 001) दर्ज कराई.
टेलिफ़ोन पर मुख्यमंत्री ने लिखाया- मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना मिली है कि वीरेंद्र महतो, ग्राम- कसियोना, पंचायत- करैया पूर्वी, प्रखंड- राजनगर, ज़िला- मधुबनी द्वारा करैया के प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी से जन वितरण प्रणाली की दुकानों में राशन- किरासन आपूर्ति का ब्यौरा माँगा गया था. इस पर उनको धमकी दी गई, जो राजनगर पुलिस थाना में केस संख्या 181/09 दिनांक 10-08-09 दर्ज किया गया है. इस मामले की पूरी जांच करके मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना दी जाए.
समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर एक नरम किस्म की ही शिकायत दर्ज कराई. गंभीर किस्म की शिकायतें तो आम लोगों के बीच जाने पर मिलती हैं.
कहीं मुखिया और पंचायत सेवक, तो कहीं प्रखंड, अनुमंडल और ज़िला स्तरीय पदाधिकारी सरकारी योजना राशि में लूट मचाते हुए मिलते हैं. लेकिन इन्हें पकड़ेगा कौन? सब जानते हैं कि नीचे से ऊपर तक का सरकारी महकमा लूट में शामिल रहता है. ऐसे में सूचना के अधिकार के तहत कोई आम आदमी अगर घोटाले का राज़ खोलने वाली जानकारी मांगेगा तो लुटेरों के बीच खलबली होगी ही.
राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त अशोक कुमार चौधरी फिर भी नहीं मानते कि कोई लोक सूचना पदाधिकारी किसी सूचना माँगने वाले को जेल भेजने की धमकी देता होगा या किसी सरकारी फ़ाइल को ग़ायब करता होगा. लेकिन उन्होंने कुछ शिकायतों को स्वीकार करते हुए कहा, "इस क़ानून के प्रावधानों की सही समझ अभी पूरी तरह न तो लोक सेवकों में है और न ही सूचना मांगनेवाले लोगों में. सबकुछ दुरुस्त होने में कुछ वक़्त लगेगा. जहाँ तक प्रताड़ना कि बात है तो ऐसी निश्चित और सही शिकायत अगर आयोग को मिलेगी तो उसे कार्रवाई के लिए सरकार के पास ज़रूर भेजा जाएगा."
सूचना अधिकार मामलों से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्था की प्रमुख परवीन अमानुल्लाह का कहना है कि भ्रष्ट सरकारी अफ़सरों और कर्मचारियों का ऐसा गिरोह बन गया है, जो इस क़ानून को बेअसर बनाने पर तुला हुआ है. परवीन कहती हैं, "अगर कोई आम आदमी सूचना पाने के अपने हक़ का डटकर इस्तेमाल करना चाहता है तो उसे डरा-धमका कर ख़ामोश करानेवाले सरकारी अधिकारी फ़ौरन सक्रिय हो जाते हैं. इसलिए दोषी पाए जाने पर भी उन पर सख़्त कार्रवाई नहीं होती. मैंने 45 ऐसे मामलों की जानकारी राज्य सरकार को बहुत पहले दी थी, लेकिन उस पर अब तक कुछ भी नहीं हुआ."
यहाँ उल्लेखनीय है कि परवीन अमानुल्लाह बिहार के एक बड़े आईएएस अधिकारी अफज़ल अमानुल्लाह की पत्नी हैं. इन्होंने एक भेटवार्ता में बीबीसी से खुलकर कहा कि राज्य की शासन व्यवस्था में भारी गड़बड़ी है और यहाँ अधिकांश नौकरशाह भ्रष्ट हैं.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने भाषणों में ज़रूर कहते हैं कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है और मालिक की मांगी गई सूचना नहीं देने वाले नौकर यानी अधिकारी बख्शे नहीं जाएँगे. लेकिन होता है उल्टा. प्रताड़ित जनता हो रही है और नेता-अधिकारी फल-फूल रहे हैं.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/11/091121_bihar_rti_pp.shtml?s
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By CHRI
CHRI urges the Bihar Government to take serious note of the lacunae in the RTI (Amendment) Rules, 2009 which are clearly anti-poor and RTI-unfriendly. CHRI also urges the Bihar Government to immediately amend the Rules as recommended above and issue a fresh Gazette notification.
Bihar Right to Information (Amendment) Rules, 2009
A Critique with Recommendations for Change
Background
Amongst the 27 States covered by the Right to Information Act (RTI Act) Bihar was the slowest to implement it. While the scheme of the Act required all the Governments to put in place mechanisms for its implementation within 120 days of enactment, the Bihar Government notified the RTI Rules only in June 2006 – eight months late. Some of the Rules were citizen-unfriendly. For example, the Rules require citizens to pay fees for filing appeals at both stages. There is no provision in the RTI Act for collecting fees for appeals or complaints. This fee related Rule was clearly against the letter and spirit of the RTI Act.
Over the last couple of years the Bihar Government has taken progressive measures steps to create greater convenience for citizens to access information from public authorities. The fee for filing appeals internally has been reduced from Rs. 50 to Rs. 10 while no fee needs to be paid for approaching the Bihar State Information Commission. The Bihar Government took a truly innovative step to enable citizens to file RTI applications by telephone by setting up the Jaankaari call centre. This has reduced the need for citizens to go to government offices personally for filing RTI applications, leaving little room for public information officers (PIOs) to refuse an RTI application at the gateway stage.
However the Government’s commitment to implement the RTI Act effectively seems to be waning in recent times. The Bihar State Information Commission remained headless for several months after the retirement of the first State Chief Information Commissioner. This post has been filled up only in October 2009 with the appointment of Shri Ashok Kumar Choudhary.
On 19th November, the Bihar Government notified a set of amendments to the RTI Rules. Several of these amendments will negatively affect people living below the poverty line (BPL). For example, unreasonable restrictions have been imposed on the extent of information that may be given free of cost to applicants belonging to the poorest segments of society. Subject-matter restriction and word limits have been imposed on all RTI applications. Applicants will be compelled to request information only on one subject matter at a time and within 150 words only. In addition to paying application and additional fees applicants will now be required to submit self-addressed stamped envelopes if they wish to obtain information. Restrictions have been imposed on the transfer of applications to multiple public authorities. The Bihar Government has notified all these anti-poor and RTI-unfriendly restrictions without any prior consultation with the people of Bihar.
No public consultation on amendments
While imposing these new restrictions on the people’s fundamental right to seek and obtain information, the Bihar Government has failed to honour an important statutory obligation under the RTI Act. Section 4(1)(c) of the Act states as follows:
“4. (1) Every public authority shall—
X X X
c) publish all relevant facts while formulating important policies or announcing the decisions which affect public;”
Since 2005, several citizens have been using the RTI Act in Bihar, some of whom belong to the BPL category. The latest amendments clearly are important decisions that affect the public not only in Bihar but Indian citizens all over the globe. In fact, the RTI Act empowers every Indian citizen sitting in any corner of the planet to access information from any public authority in any part of the country, including Bihar. There has been little discussion in the public domain about the need for these amendments. The Bihar Government has a statutory obligation to disclose all the facts and figures during the formulation of such an important policy change prior to its notification in the Gazette. It is important to place in the public domain material facts and all considerations that guided the imposition of restrictions on the fundamental rights of citizens. However the Bihar Government has not placed any information before the people justifying the necessity of imposing these restrictions on their fundamental right.
Further section 4(1)(d) of the RTI Act states as follows:
“4. (1) Every public authority shall—
X X X
d) provide reasons for its administrative or quasi-judicial decisions to affected persons.
The amendment of the RTI Rules, clearly, is an administrative decision of the Bihar Government. They potentially affect every information-seeking Indian citizen in Bihar and elsewhere on the planet. The Government is duty bound to disclose in the public domain the reasons for bringing about these changes in the RTI Rules. However the Bihar Government has not disclosed any reasons for making these changes prior to or after their gazette notification. The amendments have been incorporated in an arbitrary manner without adequate consultation with the most important stakeholders, namely the people of Bihar.
Given below is an analysis of the positive and negative aspects of the amendments notified by the Government.
Positive aspects of the amendments
Reference to Jaankaari Call Centre included: The original Rules were notified before the creation of the Jaankaari call centre mechanism. Hence the inclusion of this mechanism in the Rules as a valid method of submitting RTI applications is welcome.
Negative aspects of the amendments and recommendations for change
1. BPL requestors will be charged fee for information beyond 10 pages: The most retrograde of amendments is in the context of fee-related Rules. A new proviso has been introduced to Rule 3 making it compulsory for applicants from BPL families to pay photocopy charges at regular rates if the information exceeds 10 pages in length. Clearly this is against the very letter and spirit of the RTI Act. The proviso to section 7(5) of the RTI Act states that no fees will be charged from BPL applicants at any stage. Both application fee and additional fee, that covers the cost of reproducing the information in print or electronic form, have been waived for the poorest segment of society. The Bihar Government cannot use its rule-making power to override the fee waiver for BPL applicants given in the principal statute passed by Parliament. Rule-making powers have been given to the State Government under section 27 only to carry out the provisions of the Act, not frustrate its objectives.
Parliament had intended that very poor people should not be asked to bear the financial burden of exercising their right to information. Often, the cause of deprivation of such people can be linked to the lack of access to crucial information about their entitlements which is under the control of public authorities. Frequently the choice for the impoverished is between spending money on a meal or on seeking information relating to their entitlements. Therefore Parliament had intended to provide them information free of cost. The restriction of ten pages seems arbitrary even though it may appear to be designed to prevent diversion of a public authority’s resources. No reasoning has been provided as to how 10 pages have been found to be the ideal limit for providing information free of cost. In Maneka Gandhi v Union of India (AIR 1978 SC597) and several other decisions, the Supreme Court of India has stated that no action of the government or its instrumentality can be arbitrary in nature.
Other states like MP and Chhattisgarh have found more reasonable ways of handling requests for information from BPL applicants. Both States amended their fee-related provisions to ensure adherence to the provisions of the RTI Act keeping in mind the rights of BPL applicants and the need for optimum utilization of the resources of a public authority – a public interest protected in the preamble of the RTI Act, read with section 7(9). In Chhattisgarh, if the information relates to the life and liberty of the applicant, such information is to be provided in the form in which it has been requested, free of cost, regardless of its length. In both Chhattisgarh and Madhya Pradesh, information may be given free up to fifty pages or up to a maximum cost of Rs. 100 if it is not directly related to the applicant. If the information is voluminous, the BPL applicant will be given the opportunity to inspect the records free of cost. Under no circumstance is the BPL applicant to be charged for accessing information in these States. This arrangement is in harmony with the intention of the RTI Act unlike the amendments notified by the Bihar Government. This offending and anti-poor Rule instituted by the Bihar Government must be deleted.
Recommendation:
Rule 3(2) in the RTI (Amendment) Rules, 2009 must be deleted. Instead a new proviso must be inserted below Rule 3 of the RTI Rules, 2006 to allow BPL applicants to access information free of cost up to fifty pages. If the request is for voluminous information then the applicant must be allowed to inspect all the records free of cost so that he/she may prioritise the documents whose copies are required.
2. Applicants to provide self-addressed, stamped envelopes: A new Rule has been introduced making it compulsory for applicants to submit self-addressed, stamped envelopes. This new provision has been placed at the bottom of Rule 3 after the details of procedure regards application fee and additional fee have been described. The amendment cryptically states that an application will not be rejected merely because such an envelope has not been provided by the applicant.
This amendment appears to indicate that the Bihar Government intends to pass on the burden of postal charges to the applicant. This is clearly in contrast to the practice in the Government of India where all public authorities bear the expenditure on postal charges incurred by public authorities while communicating with the applicant. Ideally the Bihar Government could bear this expenditure in a similar manner. However some states like Maharashtra have specifically indicated in their Rules that the postal charges will have to be borne by the applicant. So the intention of Bihar Government is not entirely out of place. It is the vagueness of this amendment that has the potential to create problems during implementation. For example, the new Rule does not state whether the applicant is required to submit the envelope at the application stage or at the stage of paying additional fee.
If the envelope is required to be submitted at the application stage a problem will arise: if the envelope is meant to be used by the public authority only to communicate the amount of additional fee payable by the applicant, the public authority will still have to bear the expenditure of postal charges while sending the copies of documents. As only one envelope is required to be submitted by the applicant, the public authority would have used it up. The purpose of the amendment would not be fulfilled.
A second problem will arise in the context of applications made with the assistance of the Jaankaari call centres. It is not clear how and when an applicant, using this facility, is required to send the self-addressed, stamped envelope. This Rule has been formulated without paying adequate attention to all the dimensions of the applications process.
On the other hand if the envelope is required to be submitted by the applicant while paying additional fee, two problems will arise:
a) The amendment does not indicate anything about the value of stamps that must be affixed on the envelope- this creates the first problem. More often than not the applicant will not be in a position to know the actual number of pages on which the information may be provided by the public authority. In the absence of knowledge of the total number of pages, the applicant will not be able to calculate the weight of the packet and affix stamps of the required value. This will only create confusion. The applicant may either affix more stamps than required causing wastage of postal stationery (not to mention the extra financial burden on the applicant) or may end up fixing stamps of lesser value.
b) The second problem will arise when an applicant affixes stamps of lesser value than is required according to the weight of the package. The amendment states that an application may not be rejected because the envelope was not submitted. This may appear to be a positive provision but its impact will be negative. A PIO may simply delay the supply of information on the pretext that adequate postage has not been paid by the applicant. This is likely to be treated as delay in supplying the information for a reasonable cause and the statutory time limit of 30-days stipulated by the RTI Act may be given a quiet go by. In effect this amendment will create loopholes in the information furnishing process especially with regard to the strict adherence to time-limits required under the Act.
Rather than create loopholes that will slow down the process of supplying information to the applicant, the Bihar Government may simply amend the Rules requiring the PIO to inform the applicant of the postal charges payable while sending the intimation of additional fee. However it is advisable for the Bihar Government to bear the postal charges itself thereby emulating the good practice established by the Government of India.
Recommendation:
Rule 3(iii) must be deleted. It is advisable for the Bihar Government to bear the postal charges. If this is not found to be feasible, then the words “including postal charges” may be inserted in Rule 3(ii) after the words: “other fees and charges”.
3. Imposition of subject matter restriction and word limit: The amendments introduce a new Rule 3(ka) below the existing Rule 3(ba) imposing two kinds of restrictions:
a) a citizen is allowed to seek information on one subject matter only in one RTI application. If the request includes multiple topics then the PIO is instructed to answer the first point only; and
b) the application must not, ordinarily, exceed 150 words.
Bihar appears to be following in the footsteps of Karnataka which introduced similar restrictions at the behest of the Karnataka State Information Commission in 2008. File notings, related to the decision-making process accessed under the RTI Act, revealed that the inspiration for the amendment was drawn from the regulations governing the raising of starred questions in the Karnataka legislature. Legislators are required to restrict their questions put to the government to one subject matter described in not more than 150 words. The file notings revealed that the Karnataka Information Commission had before it three cases where requests were made for voluminous information in lengthy applications. The Commission initiated the amendments exercise in order to discourage such applications in future based on a very miniscule number of RTI applications.
These restrictions are retrograde and will negatively affect the fundamental right of citizens to seek and obtain information from the Bihar Government for the following reasons:
a) Rule 3(ka) places unlawful limitations on the fundamental right to information: Rule 3(ka) places unlawful limitations on the citizens’ fundamental right to information. The right to information is a fundamental right derived from the fundamental right to freedom of speech and expression guaranteed under Article 19(1) of the Indian Constitution. Restrictions on these rights may be placed only on grounds such as sovereignty and integrity of the State, public order, morality and decency, defamation, incitement to offence, friendly relations with foreign States or contempt of court, as enumerated in Article 19(2). Limiting the space available for the citizen to express himself/herself is an unacceptable restriction on both the fundamental right of speech and expression and the fundamental right to seek and obtain information. This is undesirable and goes against the letter and spirit of the Indian Constitution.
Furthermore, under Article 350 of the Indian Constitution any citizen may submit a written representation regarding any grievance he/she may have to any government officer. There is no restriction on the word limit or diversity of the subject matter contained in such representations. There should be not be any unlawful restriction on RTI applications either because they are often filed in order to seek redress of a grievance arising out of maladministration or unaccountable decision making in a public authority. When the regular grievance redress mechanism in public authorities has become defunct due to neglect or conscious design, RTI applications are providing an important outlet for aggrieved citizens. The Bihar Government needs to look into this aspect of RTI-usage seriously and improve its systems for handling complaints from citizens rather than strive to impose unreasonable restrictions on their right to express themselves or seek information from public authorities.
b) Rule 3(ka) amounts to increasing grounds for refusal: This Rule will have the effect of rationing information access opportunities for citizens because it places limitations on the subject matter and the length of the RTI application. The RTI Act gives effect to the fundamental right of all citizens to access information from public authorities at the level of the Central and State Governments. According to section 7(1) of the Act only sections 8 and 9 are valid limitations on the exercise of this right. No other limitation is recognised in the law. By requiring the PIO to deal only with one subject matter contained in an RTI application the Rule effectively empowers him/her to reject the remaining points. This amounts to increasing the grounds for rejection of an application beyond the grounds mentioned in the principal Act. The Bihar Government does not have the power to impose additional restrictions on citizens’ rights protected by a law passed by Parliament.
c) Rule 3(ka) has enormous potential for misuse: Rejection of an RTI application on the ground that it contains more than one subject matter is not uncommon in public authorities around the country even in the absence of a rule like Rule 3(ka). There will be cases where it may be necessary to give some explanation to the PIO as to what information is being requested and this may at times exceed the word limit prescribed in the new Rule. Under Rule 3(ka) PIOs will be tempted to reject an application on the ground that it exceeds the word limit. Should an application be rejected because it is five or ten words in excess of the word limit? This Rule is another instance of arbitrariness that has come to characterise the attitude of the Bihar Government towards implementing the RTI Act.
This Rule also places an unreasonable amount of discretion in the hands of the PIO while deciding what constitutes a ‘single subject matter’ in an RTI application. As this phrase is left undefined in the Rules it is likely to be misused more often than nought. For example, let us assume that an applicant seeks a copy of the annual budget of a gram panchayat [required to be proactively disclosed under section 4(1)(b), but rarely done so] for the year 2008-09, a list of developmental works undertaken under various schemes for the same year in the same gram panchayat and a certified sample of the materials used in the construction of the road connecting the village to the nearest district road under the Prime Minister’s Gram Sadak Yojana (PMGSY). Will this application be treated as relating to one subject matter, namely the ‘development of the village’ or three subject matters, namely, ‘annual budget of the panchayat’, ‘list of development works’ and ‘PMGSY? The applicant may be a citizen resident of that very village who is genuinely concerned with the rampant corruption and misuse of development funds and may like to obtain this information to hold the concerned officers accountable. Should restrictions be imposed at all on any RTI application?
The primary objectives of the RTI Act are to create an informed citizenry and bring about greater transparency and accountability in the working of all public authorities and contain corruption. Where this right is likely to conflict with other public interests such as optimum use of the resources at the disposal of the Government, the preamble of the Act requires that such conflict be harmonised keeping the democratic ideal as paramount. Plainly said, the democratic ideals as spelt out in the Preamble of the Constitution of India are freedom, equality and justice for all. Instead of creating more convenience to the citizens the Bihar Government has chosen to adopt a retrograde measure which is geared to put more discretion in the hands of the bureaucracy. The Rule issued by the Government is not in tune with the legislative intent or the philosophy underpinning the RTI Act.
d) Rules cannot curtail the scope of the citizens’ right to information: The Rule-making power given in section 27 of the Act is required to be used for carrying out the provisions of the RTI Act, not for curtailing them. Rule 3(ka) in effect curtails the scope of the citizen's right. Therefore this Rule must be termed illegal. The State Government does not have the power to tamper with the operation of the Act under the pretext of creating subordinate legislation. Rule 3(ka) is an unreasonable and unnecessary restriction on the citizens’ right to information.
Recommendation:
Rule 3(ka) must be deleted.
A practical and intelligent interpretation of section 7(9) is preferable: The appropriate method of handling voluminous information requests is for the PIO to read the RTI application carefully and make a reasoned judgment of what can be given within 30 days, subject to the two caveats mentioned in section 7(9) of the Act namely, ‘disproportionate diversion of the resources’ and ‘safety and preservation of the record in question.’ The PIO is required by law to inform the applicant how much additional fees will be charged if the information is fit for disclosure. At this stage itself the PIO can inform the applicant that he/she will get only a part of the information if it is not possible to provide all the information requested within the time limit. Under section 7(3) of the RTI Act it is mandatory for the PIO to mention the details of the appellate authority so that the applicant may seek a review of the additional fees required to be paid if he/she thinks they are unreasonably high. The applicant therefore has the space to challenge before the appellate authority the PIO’s decision of disclosing only a part of the information requested. This will provide an opportunity to an officer senior to the PIO to judge whether the latter’s decision was judicious or not. If the appellate authority believes that the information ought to have been disclosed within the 30-day period he/she may order disclosure. If the information is voluminous, he/she may advise the applicant to prioritise the information he/she needs urgently. Applicants are amenable to such negotiation if only PIOs and appellate authorities would adopt a more considerate approach to handling information requests.
There is no compulsion on the PIO to provide access to all the information sought just because it is being sought under the RTI Act or because there is a fundamental right to information. The PIO has the space to talk to the applicant, inform him/her of the extra time that may be required to comply with the request fully. If the applicant agrees, then the PIO may provide the information within the extended time line. Nothing in the law prohibits the PIO from taking such humane and considerate action. If the applicant does not agree then the appeals route is always open to him/her. In any case there is no unnecessary burden placed on the PIO under the existing scheme of processing RTI applications. There is no reason for complicating this system by placing unreasonable restrictions on the applicants.
4. Restrictions on transfer of applications received in person or by post: Section 6(3) of the RTI Act enables a PIO to transfer an application partially or wholly if it is related to the working of a public authority other than his/her own. Amendments have been incorporated to Rule 4 providing detailed instructions to handle this process ostensibly based on the guidelines issued by the Department of Personnel, Government of India in 2008. The amendment to this Rule is reasonable in all respects except where multiple public authorities are involved or where an application is received in the Jaankaari call centre. The new Rule 4(6) states that where an application partially relates to the working of the public authority, which received it in the first instance, but also contains information points that relate to the working of multiple public authorities, the PIO is not required to transfer the relevant parts to the concerned public authorities. Instead he/she will advise the applicant to approach those public authorities with separate applications.
This Rule may work to the best interests of both the PIO and the applicant in a situation where comprehensive proactive disclosure under section 4(1)(b) of the RTI Act has been made by all public authorities at all levels of the administration. Implementation of this provision of the RTI Act has been poor in Bihar as well as in other States. The objective of proactive disclosure is to make available to every citizen a wealth of basic information about the working of a public authority without waiting for him/her to file a formal request. When such basic information about all public authorities is not easily available in the public domain, it is only natural that an applicant may club multiple requests in one application. Further, BPL and unlettered applicants may not be able to access even this kind of information in order to draft an application cautiously. So it is not fair to empower the PIO to refuse to transfer parts of the application to concerned public authorities. This does not amount to reasonable assistance that a PIO is required to provide every applicant under section 5(3) of the RTI Act. This Rule may be dropped until such time when a comprehensive exercise regards proactive disclosure has been completed by every public authority at all levels of its operation and is easily accessible to all persons in the public domain.
Recommendation:
Rule 4(6) must be dropped until such time when proactive disclosure has been made by every public authority and is regularly updated and easily accessible to every citizen in real time.
5. Transfer of applications received by Jaankaari call centre: Rule 4(7) introduced by the amendments states that if the Jaankaari call centre transfers an application to the wrong PIO, such PIO may transfer the application to a competent PIO under section 6(3) of the RTI Act. However for the purpose of any dispute that may arise in this case at a later date the PIO who received the application in the first instance will not be deemed to be the PIO. While the objective of this new Rule is laudable, its vague construction creates loopholes in the transfer process. The linkage of this new Rule with section 6(3) of the RTI Act implies that the transfer to the proper PIO must be made within five days and the applicant should be informed in writing. However by stating that the first PIO will not be considered as the competent PIO for the purpose of disputes, the new Rule absolves him/her of any responsibility for causing delays. For example, if the first PIO does not transfer the application within the stipulated time of five days, he/she cannot be hauled up before the Information Commission as he/she will claim immunity under because according to Rule 4(7) he/she is not be deemed the PIO for this case. The PIO of the competent public authority will on the other hand shirk responsibility for the delay by arguing that he/she was not able to process the application as it did not reach him/her on time. In effect both PIOs will escape clean while the right of the applicant to have his application processed in a timely manner will suffer with no remedy. A major loophole is created by Rule 4(7). This Rule should be amended to clarify the position that the first PIO will still be responsible for delays. This can be done by simply deleting the immunity granting clause in Rule 4(7).
Recommendation:
In Rule 4(7), the last sentence beginning with “Aise maamlon mein…” must be deleted.
Concluding Recommendation
CHRI urges the Bihar Government to take serious note of the lacunae in the RTI (Amendment) Rules, 2009 which are clearly anti-poor and RTI-unfriendly. CHRI also urges the Bihar Government to immediately amend the Rules as recommended above and issue a fresh Gazette notification.
For further information please contact:
Ms. Maja Daruwala, Director (director@humanrightsinitiative.org)
Mr. Venkatesh Nayak, Programme Coordinator (nayak.venkatesh@gmail.com)
Mr. Saurabh Dhawan, Project Officer, (saurabh@humanrightsinitiative.org)
Commonwealth Human Rights Initiative
B-117, First Floor, Sarvodaya Enclave
New Delhi- 110 017
Tel: 011-43180200/212 Fax: 011-26864688
Website: www.humanrightsinitiative.org
Wednesday 7 September 2011
Sunday 4 September 2011
चुनाव लड़ने के लिए उकसाने वालों की सदस्यता समाप्त करें
झारखंड आरटीआइ फोरम के अध्यक्ष बलराम ने एक पत्र देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को भेजा है.
सेवा में
मुख्य निर्वाचन आयुक्त
निर्वाचन आयोग, नयी दिल्ली
विषय- नागरिकों को चुनाव लड़ने की चुनौती के कारण निर्वाचन आयोग पर अगंभीर उम्मीदवारों के बोझ की संभावना के संदर्भ में दिशानिर्देश का निवेदन
मान्यवर,
आप अवगत होंगे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत जनलोकपाल के लिए नागरिकों का लोकतांत्रिक तरीके से जनांदोलन चल रहा है। इस क्रम में कतिपय सांसदों/ प्रमुख दलों व सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों ने आंदोलनकारी नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़कर आने की चुनौती दी है। इनमें लुधियाना के सांसद मनीष तिवारी तथा चांदनी चौक के सांसद कपिल सिब्बल शामिल हैं। नागरिकों को ऐसी चुनौती देना वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतंत्र की भावना एंव प्रावधानों के खिलाफ है। प्रत्येक जनप्रतिनिधि को नागरिकों के मत एवं भावना का सम्मान करना चाहिए और उस अनुरूप कार्य करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, प्रतिनिधि वापसी की व्यवस्था अब तक नहीं लागू हो पायी है। लेकिन इससे जनप्रतिनिधियों को मनमानी करने और कोई सलाह देने पर आंख दिखाने की स्वतंत्रता नहीं मिल गयी है।
नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने की धमकी देने के दूरगामी परिणामों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने के लिए मैं यह पत्र आपको लिख रहा हूं। अगंभीर उम्मीदवारों की बड़ी संख्या निर्वाचन आयोग के लिए हमेशा चिंता का विषय रही है। ऐसे प्रत्याशियों का नामांकन रोकने का समुचित तरीका अब तक नहीं निकल सका है। इसके कारण कई क्षेत्रों में निर्वाचन आयोग और सरकारी मशीनरी को गंभीर समस्या से गुजरना होता है और संसाधनों की भारी क्षति होती है।
नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने की धमकी से आहत होने के कारण संभव है कि मैं लुधियाना, चांदनी चौक व ऐसे अन्य क्षेत्रों से नामांकन कर दूं। अन्य नागरिक भी बड़ी संख्या में ऐसे कदम उठा सकते हैं। इससे निर्वाचन आयोग एवं सरकारी मशीनरी पर अनावश्यक बोझ बढ़ सकता है और चुनावी प्रक्रिया पर भी इसका प्रतिकूल असर संभव है। लिहाजा, निवेदन है कि इस दिशा में सख्ती से कदम उठाते हुए सभी राजनीतिक दलों/जनप्रतिनिधियों के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करें। नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने के लिए उकसाने वाले वक्तव्य देने वालों की सदस्यता समाप्त करने और उन्हें कोई भी चुनाव लड़ने से रोकने के लिए स्पष्ट प्रावधान बनाने की पहल की जानी चाहिए।
भवदीय
-बलराम,
अध्यक्ष, झारखंड आरटीआइ फोरम
सेवा में
मुख्य निर्वाचन आयुक्त
निर्वाचन आयोग, नयी दिल्ली
विषय- नागरिकों को चुनाव लड़ने की चुनौती के कारण निर्वाचन आयोग पर अगंभीर उम्मीदवारों के बोझ की संभावना के संदर्भ में दिशानिर्देश का निवेदन
मान्यवर,
आप अवगत होंगे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत जनलोकपाल के लिए नागरिकों का लोकतांत्रिक तरीके से जनांदोलन चल रहा है। इस क्रम में कतिपय सांसदों/ प्रमुख दलों व सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों ने आंदोलनकारी नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़कर आने की चुनौती दी है। इनमें लुधियाना के सांसद मनीष तिवारी तथा चांदनी चौक के सांसद कपिल सिब्बल शामिल हैं। नागरिकों को ऐसी चुनौती देना वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतंत्र की भावना एंव प्रावधानों के खिलाफ है। प्रत्येक जनप्रतिनिधि को नागरिकों के मत एवं भावना का सम्मान करना चाहिए और उस अनुरूप कार्य करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, प्रतिनिधि वापसी की व्यवस्था अब तक नहीं लागू हो पायी है। लेकिन इससे जनप्रतिनिधियों को मनमानी करने और कोई सलाह देने पर आंख दिखाने की स्वतंत्रता नहीं मिल गयी है।
नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने की धमकी देने के दूरगामी परिणामों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने के लिए मैं यह पत्र आपको लिख रहा हूं। अगंभीर उम्मीदवारों की बड़ी संख्या निर्वाचन आयोग के लिए हमेशा चिंता का विषय रही है। ऐसे प्रत्याशियों का नामांकन रोकने का समुचित तरीका अब तक नहीं निकल सका है। इसके कारण कई क्षेत्रों में निर्वाचन आयोग और सरकारी मशीनरी को गंभीर समस्या से गुजरना होता है और संसाधनों की भारी क्षति होती है।
नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने की धमकी से आहत होने के कारण संभव है कि मैं लुधियाना, चांदनी चौक व ऐसे अन्य क्षेत्रों से नामांकन कर दूं। अन्य नागरिक भी बड़ी संख्या में ऐसे कदम उठा सकते हैं। इससे निर्वाचन आयोग एवं सरकारी मशीनरी पर अनावश्यक बोझ बढ़ सकता है और चुनावी प्रक्रिया पर भी इसका प्रतिकूल असर संभव है। लिहाजा, निवेदन है कि इस दिशा में सख्ती से कदम उठाते हुए सभी राजनीतिक दलों/जनप्रतिनिधियों के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करें। नागरिकों को स्वयं चुनाव लड़ने के लिए उकसाने वाले वक्तव्य देने वालों की सदस्यता समाप्त करने और उन्हें कोई भी चुनाव लड़ने से रोकने के लिए स्पष्ट प्रावधान बनाने की पहल की जानी चाहिए।
भवदीय
-बलराम,
अध्यक्ष, झारखंड आरटीआइ फोरम
हम अन्ना के साथ हैं
क्योंकि घूस दिये बगैर हमारा कोई काम नहीं होता
और अगर होता भी है तो जूतियां घिस जाती हैं
हमारे हिस्से का राशन चोरी हो जाता है और पेंशन नहीं मिलती
और क्योंकि घूस के कारण हमारा जीवन नरक हो गया है
जबकि अफसरों और नेताओं के हिस्से पूरा स्वर्ग है
और क्योंकि हमारी मेहनत की कमाई काले धन में बदल जाती है
और काले धन का बड़ा हिस्सा विदश भेज दिया जाता है
और क्योंकि हमारे टैक्स के पैसे हमारे विकास पर खर्च नहीं होते
जबकि हम बच्चों की पढ़ाई और बाबूजी के इलाज को तरस जाते हैं
और क्योंकि काली कमाई करने वालों पर केस नहीं होता
और अगर होता भी है तो कारवाई नहीं होती
और क्योंकि चोर-चोर मौसेरे भाई हैं
और क्योंकि प्रधानमंत्री के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है
जबकि भ्रष्टाचार का बोझ सहने को हम बिलकुल तैयार नहंी
और क्योंकि सरकार में बैठे लोगों की लूट सामने आ चुकी है
जबकि मजबूत जनलोकपाल के बगैर यह चोरी नहीं रूक सकती
और क्योंकि सरकार ऐसा कोई मजबूत कानून बनाने को तैयार नहीं
और संसद में कानूनों पर बहस के बदले हंगामा होता है
और क्योंकि संसद में 42 साल से लटका हुआ है लोकपाल बिल
जबकि संसद का काम कानून बनाना है
और क्योंकि कानून नहीं संसद का काम बनना नहीं है
जबकि 42 साल इंतजार के बाद 42 पल भी भारी लगते हैं
और जबकि सरकार के पास भ्रष्टाचार रोकने की इच्छाशक्ति नहीं
और क्योंकि इसकी मांग करने वाले अन्ना को ही डराया जाता है
और गांधी के देश में अनशन पर भी रोक लगा दी जाती है
और क्योंकि काला धन पर बोलने वाले रामदेव को पीटा जाता है
और दस साल से अनशन कर रही शर्मिला की अनदेखी हुई है
और क्योंकि लोकतंत्र के बाद भी जनभावना की कीमत नहीं
और हर जनांदोलन को कुचल दिया जाता है
जबकि हम एक आजाद देश के नागरिक हैं
और जबकि हम एक अच्छे राज और बेहतर समाज के हकदार है
और क्योंकि आजादी के बाद भी हमें लड़ना पड़ रहा है
क्योंकि हम जानते हैं कि लड़े बिना हमें कुछ नहीं मिलने वाला
और क्योंकि ऐसे ही बहुत से दूसरे कारणों से ..... हम अन्ना के साथ हैं।
और अगर होता भी है तो जूतियां घिस जाती हैं
हमारे हिस्से का राशन चोरी हो जाता है और पेंशन नहीं मिलती
और क्योंकि घूस के कारण हमारा जीवन नरक हो गया है
जबकि अफसरों और नेताओं के हिस्से पूरा स्वर्ग है
और क्योंकि हमारी मेहनत की कमाई काले धन में बदल जाती है
और काले धन का बड़ा हिस्सा विदश भेज दिया जाता है
और क्योंकि हमारे टैक्स के पैसे हमारे विकास पर खर्च नहीं होते
जबकि हम बच्चों की पढ़ाई और बाबूजी के इलाज को तरस जाते हैं
और क्योंकि काली कमाई करने वालों पर केस नहीं होता
और अगर होता भी है तो कारवाई नहीं होती
और क्योंकि चोर-चोर मौसेरे भाई हैं
और क्योंकि प्रधानमंत्री के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है
जबकि भ्रष्टाचार का बोझ सहने को हम बिलकुल तैयार नहंी
और क्योंकि सरकार में बैठे लोगों की लूट सामने आ चुकी है
जबकि मजबूत जनलोकपाल के बगैर यह चोरी नहीं रूक सकती
और क्योंकि सरकार ऐसा कोई मजबूत कानून बनाने को तैयार नहीं
और संसद में कानूनों पर बहस के बदले हंगामा होता है
और क्योंकि संसद में 42 साल से लटका हुआ है लोकपाल बिल
जबकि संसद का काम कानून बनाना है
और क्योंकि कानून नहीं संसद का काम बनना नहीं है
जबकि 42 साल इंतजार के बाद 42 पल भी भारी लगते हैं
और जबकि सरकार के पास भ्रष्टाचार रोकने की इच्छाशक्ति नहीं
और क्योंकि इसकी मांग करने वाले अन्ना को ही डराया जाता है
और गांधी के देश में अनशन पर भी रोक लगा दी जाती है
और क्योंकि काला धन पर बोलने वाले रामदेव को पीटा जाता है
और दस साल से अनशन कर रही शर्मिला की अनदेखी हुई है
और क्योंकि लोकतंत्र के बाद भी जनभावना की कीमत नहीं
और हर जनांदोलन को कुचल दिया जाता है
जबकि हम एक आजाद देश के नागरिक हैं
और जबकि हम एक अच्छे राज और बेहतर समाज के हकदार है
और क्योंकि आजादी के बाद भी हमें लड़ना पड़ रहा है
क्योंकि हम जानते हैं कि लड़े बिना हमें कुछ नहीं मिलने वाला
और क्योंकि ऐसे ही बहुत से दूसरे कारणों से ..... हम अन्ना के साथ हैं।
Anna's Letter to the MPs
(To Hon’ble Members of Parliament, New Delhi
Subject: My sincere appeal to prevent introduction of the anti-poor Lokpal Bill passed by the Cabinet
Dear Hon’ble Members of the Parliament,
Like many of you I have been serving my country to strengthen democracy at the grass roots. Like many of you all my efforts have been focused on reducing the sufferings of the common man, the poor farmer, worker or service person. Again like many of you I have seen from very close quarters how corruption hurts the poor most.
It is only to protect his interests that I volunteered to be a part of the joint drafting committee. I regret to share that many issues which were addressing common man’s persisting concerns have been totally overlooked in the government cleared bill.
Introduction of such a defectively structured bill is an affront to the honorable Parliamentarians, which does not have the option of debating on some of the critical issues that we had raised for a strong anti-corruption Act.
1. A Strong Public Grievance Redressal mechanism – with penalties so that all departments can work effectively to reduce corruption, which is creating so much misery for the poor. Inclusion of lower bureaucracy under the ambit of the Lokpal – most cases of corruption of poor, farmers, workers and general populace would be in the interaction with the lower bureaucracy. All cases of corruption even at higher level and political levels would not be possible without involvement of the lower officers.
2. Same bill should create a strong, accountable and independent Lokpal as well as Lokayuktas at state level – because many of the corruption cases impacting the poor involve state government officers.
3. Independent selection, funding and removal mechanism to ensure autonomy of function.
4. Strong effective checks and balances to ensure accountability and transparency of the Lokpal and Lok Ayuktas.
5. Many other important issues like the coverage of the PM, Judiciary, MPs in Parliament, dismissal of corrupt officers, strong punishment, empowerment along with checks and balance of Lokpal etc.
While there are many important issues in the lokpal I write to focus and highlight the plight of the common man yet again being left out. It is my hope that the institution of the Parliament will continue to uphold its glorious heritage and prevent introduction of such an ANTI POOR bill by the government.
A copy of the comparative statement of our demands vis-à-vis the government draft is enclosed herewith for your perusal.
Yours’ Sincerely,
Anna Hazare
Subject: My sincere appeal to prevent introduction of the anti-poor Lokpal Bill passed by the Cabinet
Dear Hon’ble Members of the Parliament,
Like many of you I have been serving my country to strengthen democracy at the grass roots. Like many of you all my efforts have been focused on reducing the sufferings of the common man, the poor farmer, worker or service person. Again like many of you I have seen from very close quarters how corruption hurts the poor most.
It is only to protect his interests that I volunteered to be a part of the joint drafting committee. I regret to share that many issues which were addressing common man’s persisting concerns have been totally overlooked in the government cleared bill.
Introduction of such a defectively structured bill is an affront to the honorable Parliamentarians, which does not have the option of debating on some of the critical issues that we had raised for a strong anti-corruption Act.
1. A Strong Public Grievance Redressal mechanism – with penalties so that all departments can work effectively to reduce corruption, which is creating so much misery for the poor. Inclusion of lower bureaucracy under the ambit of the Lokpal – most cases of corruption of poor, farmers, workers and general populace would be in the interaction with the lower bureaucracy. All cases of corruption even at higher level and political levels would not be possible without involvement of the lower officers.
2. Same bill should create a strong, accountable and independent Lokpal as well as Lokayuktas at state level – because many of the corruption cases impacting the poor involve state government officers.
3. Independent selection, funding and removal mechanism to ensure autonomy of function.
4. Strong effective checks and balances to ensure accountability and transparency of the Lokpal and Lok Ayuktas.
5. Many other important issues like the coverage of the PM, Judiciary, MPs in Parliament, dismissal of corrupt officers, strong punishment, empowerment along with checks and balance of Lokpal etc.
While there are many important issues in the lokpal I write to focus and highlight the plight of the common man yet again being left out. It is my hope that the institution of the Parliament will continue to uphold its glorious heritage and prevent introduction of such an ANTI POOR bill by the government.
A copy of the comparative statement of our demands vis-à-vis the government draft is enclosed herewith for your perusal.
Yours’ Sincerely,
Anna Hazare
कहां हैं संसदीय गरिमा की बात करने वाले?
मजाक बनी राजस्थान विधानसभा, विधायक सस्पेंड, वोटर बेबस!
राजस्थान विधानसभा में 29 अगस्त 2011 को एक भाजपा विधायक ने चप्पल फेंकी। उस विधायक को एक साल के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया। यह सजा विधायक को नहीं, बल्कि उसके मतदाताओं को मिली है। विधायक जी तो साल भर सदन जाने की मेहनत से बचे। वेतन व सारी सुविधाएं मिलती रहेंगी।
नियम है कि किसी भी विधानसभा व संसदीय क्षेत्र को छह महीने से ज्यादा समय प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। किसी विधायक या सांसद की मृत्यु या इस्तीफे पर छह माह के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है। लेकिन चप्पल वाले विधायक भवानी सिंह राजावत का चुनाव क्षेत्र साल भर प्रतिनिधित्वविहीन रहेगा। उस क्षेत्र के मतदाता अपने सवालों को अपने प्रतिनिधि के माध्यम से विधानसभा में नहीं ला सकेंगे। स्पष्टतः यह सजा विधायकों को नहीं बल्कि उसके क्षेत्र लदपुरा (कोटा) के मतदाताओं को भुगतनी होगी। इसलिए उस क्षेत्र के किसी मतदाता या राजस्थान के किसी भी नागरिक को तत्काल कोर्ट जाकर अपील करनी चाहिए कि विधायक की बदतमीजी की सजा मतदाताताओं को क्यों? अगर विधायक ने गलत किया, तो उसकी सदस्यता खारिज हो, या उसके वेतन-भत्तों व अन्य सुविधाओं पर रोक लगे या उसे अगला चुनाव लड़ने से रोका जाए या कुछ और। लेकिन वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय परंपरा में नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार से भला कैसे वंचित किया जा सकता है? क्या यह नागरिकों के विशेषाधिकार का हनन नहीं है?
भाजपा विधायकों ने कांग्रेस विधायक रघु शर्मा पर सरकारी तालाब की 18 बीघा जमीन हड़पने संबंधी गंभीर आरोप लगाये थे। इस दौरान कांग्रेस विधायक रघु शर्मा ने भाजपा की महिला विधायकों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए कहा – यह विधानसभा है, कोई मोडलिंग का रैंप नहीं।
इस हंगामे के बीच पांच विधेयकों को बगैर कोई चर्चा या विमर्श कराये पारित कर दिया गया। इनमें राजस्थान राइट टू सर्विस विधेयक जैसा जनहित का महत्वपूर्ण कानून भी शामिल है। अन्य विधेयक हैं – क्रिया नियंत्रण संशोधन विधेयक, नगरपालिका संशोधन विधेयक, नगरीय पथविक्रेता जीविका का संरक्षण, पथ विक्रय का विनियमन विधेयक।
चूंकि अन्ना के आंदोलन ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप और संसदीय प्रणाली पर कई जरूरी सवाल खड़े कर दिये हैं, लिहाजा उस आलोक में हमें राजस्थान विधानसभा की इस घटना से जुड़े इन पहलुओं पर गौर करना चाहिए -
→ संसद और विधानसभा की गरिमा का क्या होगा, जिसकी दुहाई देते हमारे माननीय जनप्रतिनधि नहीं थकते, लेकिन जिसे खुद तार-तार करते हैं?
→ भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या, जिसके हल की उम्मीद हम इन जनप्रतिनिधियों से करते हैं जबकि खुद जनप्रतिनिधि ही सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में भला इनसे किसी बेहतर कानून व कारगर कदम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
→ विधायिका का प्रमुख काम है कानून बनाना। लेकिन महत्वपूर्ण कानून बिना चर्चा के पारित हो गये। इन कानूनों से ही देश-राज्य की व्यवस्था और नागरिकों की जिंदगी चलनी है। क्या इन माननीयों को हक है कि किसी सुविचारित प्रक्रिया से गुजरे बगैर कानून बना दे? अगर हां, तो विधानसभा की जरूरत क्या?
→ किसी भी क्षेत्र को छह माह से अधिक समय तक प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। तब उस विधायक को साल भर विधानसभा में आने से रोककर मतदाताओं को सजा देने का क्या औचित्य है?
→ किरण बेदी और ओमपुरी के बयानों पर हायतौबा मचाने वाले खुद जनप्रतिनिधियों की भाषा पर क्या कहेंगे? क्या कांग्रेस विधेयक को यह अधिकार है कि वह सदन में मौजूद महिलाओं पर ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणियां करे?
प्रसंगवश, रामलीला मैदान में ओम पुरी और किरण बेदी के वक्तव्य के लिए उन्हें विशेषाधिकार का नोटिस दिया गया है। लेकिन उन्हें ऐसा बोलने किसने मजबूर किया? सरकार और संसद ने उस दिन जो भावशून्यता दिखायी थी, उसे टीवी पर किरण बेदी की हताशा देखकर समझा जाना चाहिए था। अन्ना और जनलोकपाल पर बात करने के बदले संसद में जो घटिया तमाशा चल रहा था, उसे देखकर हर गैरतमंद को नफरत हो रही थी। किस महान संसदीय परंपरा की बात करते हैं ये लोग? राजस्थान विधानसभा में चप्पलें चलने पर क्यों चुप हैं महान संसदीय परंपरा और विशेषाधिकार का बखान करने वाले? क्या सदन में चप्पल चलाना और बिना कोई बहस किये कानून बना देना इनका विशेषाधिकार है? किरण बेदी और ओमपुरी इसी सच का आइना दिखा रहे थे।
और हां, ओमपुरी या किसी ने सभी सांसदों को बेवकूफ नहीं कहा। ओमपुरी उन लोगों की बात कर रहे थे जो जनलोकपाल मामले में ऊलजलूल बोल रहे थे। अगर लोकपाल विधेयक को लेकर 1968 से अब तक का इनसे हिसाब मांगा जाए, तो इन्हें तकलीफ होगी। 42 साल का गुस्सा है। थोड़ा फूट ही गया तो जायज है। सांसदों को स्वयं यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग उनका सम्मान करें। विशेषाधिकार के डंडे से कितने दिन हासिल कर पाएंगे सम्मान?
ओमपुरी कह रहे हैं कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, उस पर कोई अफसोस नहीं। सिर्फ दो शब्द थोड़े बेहतर तरीके से बोले जा सकते थे। मतलब बात सही थी, उसे बोलने में थोड़ी सावधानी बरती जा सकती थी। यानी जो कहा, ठीक कहा। ओमपुरी ने बढ़िया बताया है कि मैंने तो सिर्फ इन दो शब्दों का प्रयोग किया, आप अगर उस वक्त वहां मौजूद आम लोगों से पूछते तो आपको यकीन नहीं होगा कि वे किन शब्दों को प्रयोग करते।
ओमपुरी और किरण बेदी ने जो कहा, वह सरकार व संसद की संवेदनहीनता की नतीजा था। इन्हें विशेषाधिकार नोटिस भेजने वालों ने खुद संसद में बहस के दौरान भद्दे तरीकों, शब्दों का उपयोग किया। क्या नागरिकों का कोई विशेषाधिकार है, जिसके हनन का नोटिस दें उन सांसदों को?
अन्ना को धन्यवाद जिनके कारण पहली बार हम एक कानून बनाने पर बहस कर सके। वरना ज्यादातर विधेयक बिना चर्चा के पास हो जाते हैं। जाहिर है कि ऐसी संसद और विधानसभा को संविधान की मूल भावना के अनुरूप बनाने के लिए अभी और बहुत कुछ करना बाकी है। अन्नांदोलन ने इसकी शुरूआत भर की है।
राजस्थान विधानसभा में 29 अगस्त 2011 को एक भाजपा विधायक ने चप्पल फेंकी। उस विधायक को एक साल के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया। यह सजा विधायक को नहीं, बल्कि उसके मतदाताओं को मिली है। विधायक जी तो साल भर सदन जाने की मेहनत से बचे। वेतन व सारी सुविधाएं मिलती रहेंगी।
नियम है कि किसी भी विधानसभा व संसदीय क्षेत्र को छह महीने से ज्यादा समय प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। किसी विधायक या सांसद की मृत्यु या इस्तीफे पर छह माह के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है। लेकिन चप्पल वाले विधायक भवानी सिंह राजावत का चुनाव क्षेत्र साल भर प्रतिनिधित्वविहीन रहेगा। उस क्षेत्र के मतदाता अपने सवालों को अपने प्रतिनिधि के माध्यम से विधानसभा में नहीं ला सकेंगे। स्पष्टतः यह सजा विधायकों को नहीं बल्कि उसके क्षेत्र लदपुरा (कोटा) के मतदाताओं को भुगतनी होगी। इसलिए उस क्षेत्र के किसी मतदाता या राजस्थान के किसी भी नागरिक को तत्काल कोर्ट जाकर अपील करनी चाहिए कि विधायक की बदतमीजी की सजा मतदाताताओं को क्यों? अगर विधायक ने गलत किया, तो उसकी सदस्यता खारिज हो, या उसके वेतन-भत्तों व अन्य सुविधाओं पर रोक लगे या उसे अगला चुनाव लड़ने से रोका जाए या कुछ और। लेकिन वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय परंपरा में नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार से भला कैसे वंचित किया जा सकता है? क्या यह नागरिकों के विशेषाधिकार का हनन नहीं है?
भाजपा विधायकों ने कांग्रेस विधायक रघु शर्मा पर सरकारी तालाब की 18 बीघा जमीन हड़पने संबंधी गंभीर आरोप लगाये थे। इस दौरान कांग्रेस विधायक रघु शर्मा ने भाजपा की महिला विधायकों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए कहा – यह विधानसभा है, कोई मोडलिंग का रैंप नहीं।
इस हंगामे के बीच पांच विधेयकों को बगैर कोई चर्चा या विमर्श कराये पारित कर दिया गया। इनमें राजस्थान राइट टू सर्विस विधेयक जैसा जनहित का महत्वपूर्ण कानून भी शामिल है। अन्य विधेयक हैं – क्रिया नियंत्रण संशोधन विधेयक, नगरपालिका संशोधन विधेयक, नगरीय पथविक्रेता जीविका का संरक्षण, पथ विक्रय का विनियमन विधेयक।
चूंकि अन्ना के आंदोलन ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप और संसदीय प्रणाली पर कई जरूरी सवाल खड़े कर दिये हैं, लिहाजा उस आलोक में हमें राजस्थान विधानसभा की इस घटना से जुड़े इन पहलुओं पर गौर करना चाहिए -
→ संसद और विधानसभा की गरिमा का क्या होगा, जिसकी दुहाई देते हमारे माननीय जनप्रतिनधि नहीं थकते, लेकिन जिसे खुद तार-तार करते हैं?
→ भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या, जिसके हल की उम्मीद हम इन जनप्रतिनिधियों से करते हैं जबकि खुद जनप्रतिनिधि ही सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में भला इनसे किसी बेहतर कानून व कारगर कदम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
→ विधायिका का प्रमुख काम है कानून बनाना। लेकिन महत्वपूर्ण कानून बिना चर्चा के पारित हो गये। इन कानूनों से ही देश-राज्य की व्यवस्था और नागरिकों की जिंदगी चलनी है। क्या इन माननीयों को हक है कि किसी सुविचारित प्रक्रिया से गुजरे बगैर कानून बना दे? अगर हां, तो विधानसभा की जरूरत क्या?
→ किसी भी क्षेत्र को छह माह से अधिक समय तक प्रतिनिधित्वविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। तब उस विधायक को साल भर विधानसभा में आने से रोककर मतदाताओं को सजा देने का क्या औचित्य है?
→ किरण बेदी और ओमपुरी के बयानों पर हायतौबा मचाने वाले खुद जनप्रतिनिधियों की भाषा पर क्या कहेंगे? क्या कांग्रेस विधेयक को यह अधिकार है कि वह सदन में मौजूद महिलाओं पर ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणियां करे?
प्रसंगवश, रामलीला मैदान में ओम पुरी और किरण बेदी के वक्तव्य के लिए उन्हें विशेषाधिकार का नोटिस दिया गया है। लेकिन उन्हें ऐसा बोलने किसने मजबूर किया? सरकार और संसद ने उस दिन जो भावशून्यता दिखायी थी, उसे टीवी पर किरण बेदी की हताशा देखकर समझा जाना चाहिए था। अन्ना और जनलोकपाल पर बात करने के बदले संसद में जो घटिया तमाशा चल रहा था, उसे देखकर हर गैरतमंद को नफरत हो रही थी। किस महान संसदीय परंपरा की बात करते हैं ये लोग? राजस्थान विधानसभा में चप्पलें चलने पर क्यों चुप हैं महान संसदीय परंपरा और विशेषाधिकार का बखान करने वाले? क्या सदन में चप्पल चलाना और बिना कोई बहस किये कानून बना देना इनका विशेषाधिकार है? किरण बेदी और ओमपुरी इसी सच का आइना दिखा रहे थे।
और हां, ओमपुरी या किसी ने सभी सांसदों को बेवकूफ नहीं कहा। ओमपुरी उन लोगों की बात कर रहे थे जो जनलोकपाल मामले में ऊलजलूल बोल रहे थे। अगर लोकपाल विधेयक को लेकर 1968 से अब तक का इनसे हिसाब मांगा जाए, तो इन्हें तकलीफ होगी। 42 साल का गुस्सा है। थोड़ा फूट ही गया तो जायज है। सांसदों को स्वयं यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग उनका सम्मान करें। विशेषाधिकार के डंडे से कितने दिन हासिल कर पाएंगे सम्मान?
ओमपुरी कह रहे हैं कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, उस पर कोई अफसोस नहीं। सिर्फ दो शब्द थोड़े बेहतर तरीके से बोले जा सकते थे। मतलब बात सही थी, उसे बोलने में थोड़ी सावधानी बरती जा सकती थी। यानी जो कहा, ठीक कहा। ओमपुरी ने बढ़िया बताया है कि मैंने तो सिर्फ इन दो शब्दों का प्रयोग किया, आप अगर उस वक्त वहां मौजूद आम लोगों से पूछते तो आपको यकीन नहीं होगा कि वे किन शब्दों को प्रयोग करते।
ओमपुरी और किरण बेदी ने जो कहा, वह सरकार व संसद की संवेदनहीनता की नतीजा था। इन्हें विशेषाधिकार नोटिस भेजने वालों ने खुद संसद में बहस के दौरान भद्दे तरीकों, शब्दों का उपयोग किया। क्या नागरिकों का कोई विशेषाधिकार है, जिसके हनन का नोटिस दें उन सांसदों को?
अन्ना को धन्यवाद जिनके कारण पहली बार हम एक कानून बनाने पर बहस कर सके। वरना ज्यादातर विधेयक बिना चर्चा के पास हो जाते हैं। जाहिर है कि ऐसी संसद और विधानसभा को संविधान की मूल भावना के अनुरूप बनाने के लिए अभी और बहुत कुछ करना बाकी है। अन्नांदोलन ने इसकी शुरूआत भर की है।
Wednesday 27 July 2011
लोकतन्त्र को लूटतन्त्र बनाया
स्वामी रामदेव
हमने इस देश के जिम्मेदार नागरिक के नाते राष्टहित में राष्ट्रहित व राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानकर भ्रष्टाचार व कालेधन के खिलाफ आवाज उठाकर साथ ही पक्षपात, शोषण व अन्यायपूर्ण-व्यवस्थाओं कानूनों व नीतियों की जनहित मेम परिवर्तन की बात करके आखिर हमने क्या गुनाह किया है?
आजाद भारत के एक जिम्मेदार नागरिक के नाते मुझे ही नहीं इस देश के 121 करोड आम व खास लोगों को इस भ्रष्टाचार, कालाधन, अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठानी ही चाहिए और यदि कोई आग्रह, अज्ञान, अहंकार व स्वार्थ के कारण इस सत्य संघर्ष व आंदोलन को गुनाह, अपराध या अधर्म कहता है तो भी हम एक बार नहीं हजारों लाखों बार व अन्तिम सांस तक ये आंदोलन जारी रखेंगे
तथा जब तक कालाधन देश को नही मिल जाता, भ्रष्टाचार नहीं मिट जाता तथा शिक्षा, चिकित्सा, कानून व अर्थ-व्यवस्था आदि के नाम पर जो अन्याय पक्षपात व शोषण समाप्त नही हों जाता, लोकतन्त्र को एक कुछ लोगों ने षडयन्त्र करके लूटतन्त्र व भ्रष्टतन्त्र बना दिया है
अत: जब तक एक आदर्श लोकतन्त्र, एक आदर्श लोकतन्त्र, राजनैतिक व्यवस्था राष्ट्र में स्थापित नही हो जाती, हम सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ संघर्ष करेंगे और विजयी होंगे।
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